रक्तपित्त का चिकित्सा क्रम :- (च. चि. ४)
रक्तपित्त का चिकित्सा क्रम :- (च. चि. ४)
१. निदान परिवर्जनम् !
२. नादौ स्तम्भमर्हति
- प्रारम्भ मे रक्तस्त्राव
नही रोकना चाहिये
!
३. तस्मादुपेक्ष्यम् - उसकी उपेक्षा
करनी चाहिये !
४. *ऊर्ध्वग
रक्तपित्त मे - लन्घन
( कफानुबन्ध के कारण
)
*अधोग रक्तपित्त
मे तर्पण ( वातानुबन्ध
के कारण )
५. ऊर्ध्वगे तर्पणम् पूर्वम्
पेया पूर्वमधोगते !
(च. चि. ४
/३२)
*लन्घन के पश्चात
ऊर्ध्वग रक्तपित्त मे -तर्पण
प्रयोग
*तर्पण के पश्चात
अधोग रक्तपित्त मे
- पेया प्रयोग
६. सम् शोधन
चिकित्सा प्रयोग -
*"प्रतिमार्ग
हरणम् रक्तपित्ते विधीयते
!" (च.नि.२)
*"अक्षीणबलमान्सस्य
यस्य सन्तर्पणोत्थितम् !,बहुदोषम्
बलवतो,!
विरेचनेनोर्ध्वभागम् अधोगम्
वमनेन च !!" (च चि
४/५५,५६)
अर्थात्
* ऊर्ध्वग
रक्तपित्त मे विरेचन
कर्म,
* अधोग
रक्तपित्त मे वमन
कर्म
#शोधन पश्चात कर्त्तव्य - *ऊर्ध्वग
- तर्पण प्रयोग,
*अधोग - यवागू प्रयोग
७. सन्शमन क्रिया-
प्रयोग :- *क्षीण बल
मास कृश रोगी,
*रक्तपित्त रोग मे
यक्ष्मा का सम्बन्ध
प्रतीत होने पर
eg. *अटरुषकादि
क्वाथ,
*पदमकादि क्वाथ,
*उशीरादि क्वाथ,
*किरातिक्तादि चूर्ण
*रत्न प्रयोग-वैदूर्य,मोती,गेरु,सुवर्ण
(रात्रिपर्यन्त भिगोकर प्रात: पान)
*रक्तकफानुबन्ध
होने पर क्षार
प्रयोग करना चाहिये
*मूत्रमार्गगत
रक्तपित्त मे शतावरीक्षीर,
*गुदमार्गगत
रक्तपित्त मे मोचरस
कल्क से पकाया
हुआ क्षीर प्रयोग,
*नासागत रक्तपित्त
मे अडूसादि के
क्वाथ का अवपीड
नस्य प्रयोग
८.रक्तपित्त रोगाधिकार - वासाघृत
शतावर्यादि घृत
९.रक्तपित्त मे पथ्याप्थ्य-
*पथ्य - कफानुबन्ध होने पर
यूष /शाक प्रयोग,
वातानुबन्ध होने पर-मासरस का प्रयोग
*अपथ्य- पित प्रकोपक
आहार्-विहार
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